
दुनिया में कितने लोग होते है जो अपने तक़दीर को अपने ढंग से लिखते हैं। हम रोज़ सुबह उठते है खुद की अलग पहचान बनाने के लिए । मगर क्या वाक़ई में हम कोई पहचान बना पाते है । ख़्वाहिशों को सामने से पूरा होते देखना हर किसी के लिए मुमकिन नहीं , क्योंकि वहाँ कोशिश से ज़्यादा हारने का डर होता है ।
बचपन में ,
जब तुषार भरी आँखें थी बंद , तो रोशनी की आदत कहाँ थी
जब क़िस्मत लिखी जा रही थी , तो मुट्ठी भी खुली कहाँ थी
जब चलने को उठे नन्हे कदम , तो पैरों में जान कहाँ थी
जब खाने के लिए बढ़ते थे हाथ , तो भूख की समझ कहाँ थी
बड़े हुए तो ,
वो बंद आँखें अब झांक रही है , उस समंदर के पार
वो बंद मुट्ठी अब खुल चुकी है , दिखाएगी तलवार की धार
वो लड़खड़ाते कदम अब दम भर , दिखाए अपनी मनमानी
वो मरी भूख कहाँ गयी , जो दिखाए तेवर आसमानी
शायद ,
उनके घरों के ज़मीनों पे , तरकीबों के पन्ने बिखरे हैं
उनके घरों के दीवारें, सपनो की स्याही से निखरे हैं
समंदर खड़ा है बाहर जहाँ, अपनी मौजें तान के
लहरों में कैसा शोर उठा , उसकी हो बस गुणगान रे
पक्का ,
अब सूरज उदित हो चुका , पर्वत के सिरमौर से
आज बादल तड़ित हो चुका , देखो इसको गौर से
आज बारिश का हैं दौर चला , मन नाचे बनके मोर रे
आज डंका उसका बजेगा , मचा चहुं ओर शोर रे
कुछ अलग ही उसकी बात थी ,
ख्वाहिश को सच में बदलने की धाक थी ,
थम जाये वो कभी ,ऐसी ऊँची नाक थी
कुछ भी सोच ले , वो बंदी बड़ी बेबाक़ थी ।
अक्सर- ख्वाहिशों का मोहल्ला बड़ा होता हैं, और हम ज़रूरतों वाली गली में मुड़ जाते हैं।
बहुत सुंदर पढ कर एक मां के मन मैं सब कुछ फिर से याद आ आ गया
धन्यवाद आपके गहराई वाले शब्दों का
आपने बहुत बढ़िया लिखा है।
Dhan
धन्यवाद सर